बुधवार, 12 नवंबर 2014

ननिहाल की यादें

पुंछ में मेरा ननिहाल था। यह भारत का सीमा प्रदेश है वहाँ पाकिस्तान के द्वारा गोलाबारी प्रायः की जाती है।इसके विषय में प्रायः टीवी व समाचार पत्रों में खबरें आती रहती हैं। वे गोले ननिहाल के पीछे वाले भाग में गिरते रहते हैं।
       बचपन में अपनी ननिहाल पुंछ में बिताये गए पलों की स्मृतियाँ बारबार मन को झकझोरती हैं। उन यादों को आप मित्रों के साथ साझा करना चाहती हूँ।
       स्कूल में जब गर्मी की छुट्टियों में हम पुंछ जाते थे। दिल्ली से पठानकोट तक कोयले से चलने वाली ट्रेन में जाना और सवेरे पहुँच कर वहाँ राजमाह व पूडियों का नाश्ता खाकर बस से जम्मू जाते थे। रास्ते में साम्बा में खाए बड़ों स्वाद याद है। जम्मू में अपने किसी भी रिश्तेदार के घर एक रात बिताकर अगले दिन प्रातः बस से शाम को पुंछ पहुँचते थे। नाना-नानी से मिलने की खुशी में इतनी कठिन यात्रा के कष्ट का कभी अनुभव नहीं हुआ।
        मैं आखरी बार ननिहाल कक्षा सात पास करके जब आठवीं कक्षा में आई थी तब ग्रीष्मकालीन अवकाश में गयी थी। बाद में नाना जी की मृत्यु के बाद पुंछ का घर व दुकान बेच दी गई और नानी जी दिल्ली मेरे मामा लोगों के पास रहने लगीँ। हर पहाड़ी इलाके की तरह चढ़ाई-उतराई होने के कारण वहाँ भी यातायात के साधन नहीं थे इसलिए हर जगह पैदल ही जाना पड़ता था।
      वहाँ के घर का भूगोल अभी भी मेरी आँखों के सामने चलचित्र की भाँति घूम रहा है। बर्फबारी के कारण कच्ची छत वाले, गोबर से लिपा रसोईघर, बरामदा व उसके बाद दो कमरे थे। घर में घुसते ही दो कमरे थे। दाहिनी ओर का कमरा बैठक थी यानी ड्राइंग रूम था और बाँयी ओर के कमरे में लकड़ियों का गोदाम था। उन दिनों गैस व स्टोप आदि नहीं होते थे इसलिए खाना लकड़ियों पर बनाया जाता था और फिर बर्फ गिरने के समय ईंधन की दिक्कत भी होती थी अत: लकड़ियाँ स्टोर करके रखी जाती थीं। दालान के बाँयी ओर छत पर जाने के लिये सीढियाँ थीं। छत पर एक कोने में लेटरिन थी जिसकी हररोज सफाई के लिए सफाई कर्मचारी आता था। उस समय मैला ढोने का रिवाज था। आज भी इस प्रथा को समाप्त करने के लिए बार-बार आग्रह किया जाता है।
           घर में लाइट तो थी पर पहले जब पानी का नल नहीं था तब कुएँ या बावड़ी से भरकर, ढेरों सीढ़ियाँ चढ़कर ऊबड़-खाबड़ रास्ते से पानी लाना पड़ता था। पानी पैसा देकर भी भरवाया जाता था। उस समय कुएँ या बावडी से पानी भरना हम बच्चों को बहुत अच्छा लगता था।
         वो समय ऐसा था जब औरतें बाजार नहीं जाती थीं। उन्हें जो भी कपड़ा, जूती आदि चाहिए होती थी उनके पति लाकर देते थे। पर हाँ, लड़कियों को बाजार जाने की मनाही नहीं थीं। वे बाजार जाकर अपनी पसंद की वस्तुएँ खरीदती थीं।
        जिस समय पानी घरों में नहीं आता था उस समय सप्ताह में एक दिन यानी रविवार को शहर से बाहर किले को पार कर शहर के बाहर नदी पर कपड़े धोने जाते थे। रास्ते में मिलट्री केन्टोनमेंट थी जिसके पास से गुजरते हुए न जाने क्यों डर लगता था। यह तो बचपन की बात है समझ आने पर उन जवानों के प्रति सिर श्रद्धा से नत हो जाता है। उसी रास्ते आटा पीसने का घराट जो नदी के ऊपर बना हुआ था। शायद पानी के सहारे ही वह चलता था। उस समय आज की तरह आटा पीसने की चक्की शहर के अंदर नहीं होती थी।
      उस दिन हम बच्चों की पिकनिक होती थी। कपड़े, साबुन और नील आदि कपड़ों के साथ गठरी में बाँधकर ले जाते थे। घर से खाना बनाकर पैक करके ले जाते थे। नानी, मम्मी आदि कपड़े धोकर सुखाने के लिए फैला देते थे। शाम को कपड़े सूखने के बाद समेट कर घर लौटते थे।
         यादों के झरोखे से बहुत कुछ बाहर छलकना चाहता है पर अनावश्यक विस्तार के कारण लेखनी को यहीं विराम दे रही हूँ।

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