मंगलवार, 11 नवंबर 2014

शत्रु व मित्र

इस संसार में न कोई किसी का मित्र है और न ही कोई किसी का शत्रु है। हम अपने व्यवहार से शत्रु और मित्र बनाते हैं। इसी विचार को आचार्य चाणक्य ने कहा है-
         न क कस्यचित् शत्रु: न क कस्यचित् मित्रम्।
           व्यवहारेण जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।।
        मित्र बनाना और मित्रता करना बहुत सरल है परंतु उन्हें निभाना बहुत कठिन है। जब हमारे स्वार्थ टकराते तब वह मित्रता नहीं रहती व्यापार बन जाती है। मित्रता यदि हमारे श्मशान जाने तक हमारा साथ निभाती है तो वास्तव में वही मित्रता कहलाती है। सही मायने में हम तभी सच्चे मित्र होते हैं।
         शत्रु बनाना सबसे आसान है। हम अपनी स्वयं की गलतियों से लोगों को शत्रु बना बैठते हैं। हमारा अहम्, हमारा अविवेक, हमारा जनून ही हमारे शत्रु बनाने का काम करते हैं। जाने-अनजाने हम अपने शत्रुओं की संख्या बढ़ाते हैं।
          राजनीति में तो शत्रु व मित्र की पहचान करना बहुत कठिन है। पता ही चलता कि कौन मित्र हैं और कौन शत्रु। इसका कारण है सत्तालोलुपता। सत्ता को पाने के लिए किसी भी बाप बनाया जा सकता है और  से विलग होने की स्थिति बनने अथवा होने पर ऐसी दुश्मनी का प्रदर्शन किया जाता है मानो वहाँ कुत्ते और बिल्ली का वैर है।
            हर मनुष्य को सोच-समझ कर शत्रु व मित्रों का चुनाव करना चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें