रविवार, 9 नवंबर 2014

प्रभु की शरण

मानव का जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है। जन्म से मृत्यु तक वह पापड़ बेलता रहता है। एक के बाद एक कोई-न-कोई समस्या उसके समक्ष मुँह बाये खड़ी रहती है। वह उनको सुलझाने में ही चक्कर घिनी की तरह पिसता रहता है, कोल्हू का बैल बना रहता है।
       सुख तो उसके जीवन में बहुत आते हैं। सुख का समय शीघ्र बीत जाता है। ऐसा लगता है मानो रेत पर मछली की तरह फिसल रहा है। कष्ट का समय बीतने को नहीं आता। एक-एक पल एक-एक युग की तरह लगता है। उस समय ऐसा लगता है मानो हम हमेशा से ही दुखी हैं और वह दुख हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा। सुख और दुख हमारे जीवन में चक्र के अरों की तरह ऊपर नीचे होता रहता है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो कभी एकसाथ नहीं मिल सकते।
        इन सभी कष्ट व परेशानियों के चलते हम जीना नहीं छोड़ सकते। उनका डटकर सामना करना चाहिए। उनके चलते हम हार नहीं मान सकते। जीवन चलने का नाम है, कठिनाइयों से झूझने का नाम है। थक हार कर बैठना कायरता है। हमें कायर नहीं झूझारू बनना है। चींटी की तरह बार-बार परिश्रम करना है।
        हमें केवल अपना कर्त्तव्य करना है, अपना कर्म करना है। उसका फल ईश्वर पर छोड़ दो। सच्चाई व ईमानदारी से कर्म करने का फल देर सवेर अवश्य मिलता है। ईश्वर इतना निर्दय नहीं कि वह अपने बच्चों को कष्ट में देख सके। उसको भी तो कष्ट होता होगा अपने बच्चों को परेशान देखकर जैसे हम अपने बच्चों को दुख में दुखी होते हैं। हम भी अपने बच्चों को सही रास्ता दिखाने के लिए सजा देते हैं। उसी तरह वह भी राह से भटकने पर सजा के रूप में कष्टों व परेशानियों से दो-चार करवाता है।
       सच्चे मन से उसकी शरण में जाने पर वह हमें कष्ट मुक्त तो नहीं करता पर उसे सहने की शक्ति अवश्य देता है। इसका कारण है-
'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्' 
  अर्थात् हमने जो कर्म इस जन्म में या पूर्व जन्मों में किए हैं उन्हें अवश्य भोगना पड़ेगा। उनसे कोई गुरु, कोई स्नान, कोई तीर्थ यात्रा छुटकारा नहीं दिला सकती।बिना किसी तथाकथित किसी ढोंगी के पास जाने के बजाय प्रभु की शरण में जाना चाहिए वो ही हमारी एकमात्र शरण स्थली है।

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