शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

जेब या धन

मनुष्य का व्यवहार उसकी जेब में पड़े धन के अनुसार होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जैसे-जैसे उसकी धन-संपत्ति में वृद्धि होती है उसके व्यवहार के परिवर्तन को हम अनुभव कर सकते हैं।किसी विद्वान ने सत्य कहा है- 'मनुष्य एक समय में एक ही चीज भर सकता है- दिल या जेब।'
     एक उदाहरण से समझते हैं-
     धन के हैं तीन नाम परसु परसा परसराम।
इसका तात्पर्य यह है कि जब इंसान के पास धन-समृद्धि नहीं होती तब लोग उसका नाम भी ठीक से नहीं पुकारते। परसराम के स्थान पर उसे परसु कहकर पुकारते हैं। यह वह काल है जब मनुष्य परिस्थितियों के कारण दुनिया की अवहेलना का शिकार होता है। भुक्तभोगी होने के कारण वह दूसरे की मजबूरी को समझता है। उसके मन में दया, ममता, सहानुभूति आदि मानवोचित गुण निवास करते हैं।
          थोड़ी-सी धन-सम्पत्ति कमा लेने पर उसे लोग परसु के स्थान पर परसा बुलाने लगते हैं। इस अवस्था में पहुँच कर मनुष्य धीरे-धीरे अपने-आपको दूसरों से अलग समझने लगता है। वह सोचता है कि उसे किसी से मतलब रखना आवश्यकता नहीं और फिर दूसरों से कन्नी काटने लगता है। सबसे दूर होने लगता है।
      सौभाग्य से जब इंसान के पास प्रभूत धन-वैभव आ जाता है तो समाज में उसका एक महत्त्वपूर्ण स्थान बन जाता है। लोग उसे सम्मान से परसराम कहकर पुकारते हैं। फिर उसका दिमाग सातवें आसमान में उड़ने लगता है और वह अहंकारी होने लगता है। अपने बराबर वह किसी को नहीं समझता और स्वयं को ईश्वर से भी बड़ा मानने लगता है। वह अपने माली, ड्राइवर, नौकर तक का नाम लेने में हेठी समझता है। इंसान को इंसान नहीं समझता। संबंधों में केवल स्वार्थ को ही देखता है। वह सबसे दूरी बनाकर रखता है और किसी की परवाह नहीं करता।
     हम स्पष्टरूप से कह सकते हैं कि जब मनुष्य की जेब खाली थी तब सभी प्रकार की संवेदनाओं से युक्त होता है परंतु जेब भरने के बाद वह सबसे आँखें चुराने लगता है व मानवोचित गुणों से दूर होता जाता है। उसकी सोच पूर्ण रूपेण बदल जाती है।
       वास्तव में ज्यों-ज्यों मनुष्य किसी भी क्षेत्र में उन्नति करे तो उसे फलदार व छतनार वृक्ष की तरह होना चाहिए जिसकी छाया में असहायों व जरूरतमंदों को पनाह मिल सके।

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