शनिवार, 15 नवंबर 2014

संसार असार

असार संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है। ईश्वर के इस विधान में फेर बदल संभव नहीं है। जो भी यहाँ आता है उसे अवश्य ही जाना पड़ता है। यह अटल सत्य है, इससे कोई बच नहीं सकता।
         जीवन तो हम सब अपनी ही शर्तों पर इच्छानुसार जीना चाहते हैं। संसार की चकाचौंध में हम इतना खो जाते हैं कि अपने जीवन के अंत के विषय में सोचना भी गवारा नहीं करते। मृत्यु को अस्पृश्य मानते हुए उसे हिकारत से देखते हैं और उसके पास नहीं जाना चाहते। कुछ डर के मारे भी इस बारे में सोचने से परहेज करते हैं।
      मृत्यु न अस्पृश्य है और न ही भयावह है,  उससे क्या डरना? मृत्यु चिरशांति है जिसकी हमें बहुत आवश्यकता होती है। दिन के बाद यदि ईश्वर रात न बनाता तो दिन का मूल्य हमें पता ही न चलता। भूमध्य रेखा के पास या दूर वाले जिन देशों में रात या दिन के समय का संतुलन नहीं वहाँ के निवासी बहुत कठिनाइयों का सामना करते हैं।
     इसी प्रकार जीवन के बाद मृत्यु न होती तो जीवन का मूल्य समझ न आता। आत्मा सभी कर्मों से निर्लिप्त है। सभी क्रियाकलाप शरीर के होते हैं आत्मा के नहीं। आत्मा तो संकल्प और विकल्प से रहित है। जीव इसके अभ्यास से जन्म व मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर निश्चित समय के लिए कैवल्य या मोक्ष का भोग करता है फिर अनन्त यात्रा के लिए चल पड़ता है। यही जीवन चक्र है।
        जीवन-मृत्यु एक पहेली ही है। इसे ऋषि-मुनियों ने सुलझाने का भरसक प्रयास किया है। फिर भी अभी बहुत कुछ समझना शेष है।
यह सब मैं नहीं कह रही हमारे ग्रन्थों का कथन है। मृत्यु चिर निद्रा अवश्य है पर मोक्ष नहीं। हमारा वैदिक धर्म मानता है कि मोक्ष या जीवन मुक्ति या कैवल्य एक सीमित समय के लिए जीव को उसके पुण्यों के कारण मिलता है। समय-सीमा समाप्त होने के पश्चात जीव फिर से जन्म व मृत्यु के क्रम में आता है।

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