सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

मातृदेवो भव

'मातृदेवो भव पितृदेवो भव' अर्थात् माता और पिता को देवता मानने वाले भारत देश में विदेशों की तरह 'ओल्ड होम' की आवश्यकता नहीं है। हमारी संस्कृति में बच्चे के पैदा होते ही यह संस्कार कूट-कूट कर भरे जाते हैं कि उन्हें बड़े होकर अपने वृद्ध हो रहे माता-पिता की सेवा करनी है। मैं बहुत आशावादी हूँ और यह भी मानती हूँ कि भारत में प्रायः बच्चे अपने माता-पिता की परवाह करते हैं उनकी सुविधाओं का ध्यान रखते हैं। कुछ मुट्ठी भर ऐसे बच्चे हैं जो बच्चे अपने कर्त्तव्य से विमुख हो रहे हैं समाज उन्हें आज भी हिकारत की नज़र से देखता है। उन्हीं के लिए यह आलेख लिखा है।
       कुछ मित्रों का आग्रह था कि माता-पिता के प्रति बच्चों की अवहेलना के बारे में लिखूँ। यह विषय वाकई अंतस् को झिंझोड़ कर रख देता है। हमारा नैतिक दायित्व भी है कि हम प्रबुद वर्ग इन सामाजिक समस्याओं के विषय पर लिखकर समाज को दिशा देने का कार्य करें।
     माता और पिता एक बच्चे के जीवन में अहम् भूमिका निभाते हैं। वे दोनों मिल कर अपनी संतान को इस योग्य बनाते हैं कि वह संसार में सिर उठा कर चल सके और भविष्य में अपना जीवन यापन बाधा रहित होकर कर सके।
       बच्चे कितना भी कमाने लगें अथवा ओहदे में कितने भी बड़े हो जाएँ अपने ऐसे माता-पिता की अवहेलना करने का उन्हें हक नहीं है जिन्होंने उसे पृथ्वी पर लाने का महान कार्य किया है। किसी भी सभ्य समाज में यह अपेक्षित नहीं है कि बच्चे ऐश करें और उनके माता-पिता दरबदर होकर ठोकरें खाएँ या पैसे-पैसे के मोहताज हो दवा-दारू को तरसें। दो वक्त रोटी को अगर माता-पिता तरसें तो बच्चों के करोड़पति या अरबपति होने को धिक्कार है।
इसीलिए ऐसी दुर्दशा जिनकी होती है वे अपने भाग्य को कोसते हैं कि ईश्वर ने उन्हें ऐसी संतान क्यों दी? वे संतानहीन रहते तो अच्छा था।
      यदाकदा ऐसी घटनाएँ टीवी और समाचार पत्रों की सुर्खियों में आकर मानस को झकझोर कर रख देती हैं। मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि वे बच्चों को अपने माता-पिता के दुखों-परेशानियों से बचाएँ और अपने नैतिक कर्तव्यों का निर्वाह करें।
      सरकार या कानून के भरोसे हम अपने बजुर्गों को नहीं छोड़ सकते। समाजसेवी संस्थाएँ भी अपने तरीके से इस समस्या का निदान कर रही हैं। फिर भी बहुत कुछ करना अभी शेष है।

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