रविवार, 26 अक्तूबर 2014

विधवा विवाह

विधवाओं की दुर्दशा के बारे में बहुत सुना व पढ़ा मन को अतीव पीड़ा हुई। पता नहीं अपने घर की इज्जत को इस तरह प्रताड़ित होते हुए देखकर लोगों के मन क्यों नहीं फटते? खाने-पीने को मोहताज, स्वास्थ्य की सुविधा से वंचित ये विधवाएँ कहीं-कहीं भिक्षा माँग कर जीवन यापन कर रही हैं। सभ्य समाज के लिए यह बड़े शर्म की बात है कि उसका एक अंश इतनी बदहाली में गुजर बसर कर रहा है और वह मौन होकर इस अन्याय की ओर से आँख मूँद कर सो रहा है।
       हमारे भारत की संस्कृति तो ऐसी नहीं थी कि अपने प्रिय जन को इस प्रकार असहाय छोड़ दिया जाए। चाहे वह माँ हो, बहु हो, बेटी हो अथवा बहन हो उसे इस प्रकार का जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर करना भी अपराध ही है।
      विधवा का पुनः विवाह किया जा सकता है। प्राचीन काल में विधवा विवाह हुआ करता था। आयु प्राप्त विधवा की बात मैं नहीं कर रही परंतु अल्प वय विधवा के पुनः विवाह की अनुमति हमारे ग्रन्थ देते हैं।
       अथर्ववेद के मंत्र १८.३ में कहा गया है कि मैंने विधवा युवती को जीवित मृतो के बीच से अर्थात शमशान भूमि से ले जाई जाती हुई तथा पुनर्विवाह के लिए जाती हुई देखा है। वह पति विरह जन्य दुःख रूप घोर अंधकार से द्रवित थी इसलिए उसे पूर्व पत्नीत्व से हटाकर दूसरा पत्नीत्व प्राप्त करा दिया है। यह मन्त्र हमें समझा रहा है कि विधवा का पुनः विवाह किया गया।
       अथर्ववेद के ही अन्य मन्त्रों 9/5/27-28 में कहा गया है कि जो स्त्री पहले पति की मृत्यु के पश्चात जब पुन: दूसरे पति को प्राप्त करती है तो पुन: पत्नी होनेवाली स्त्री के साथ दूसरा पति एक ही गृहस्थलोक में वास करने वाला हो जाता है। अर्थात् दोनों पति-पत्नी के रूप में अपनी गृहस्थी चलाते हैं।
       पति की मृत्यु के बाद  देवर से भी पुनर्विवाह के प्रमाण ऋग्वेद १०/४०/२ और निरुक्त ३/१४ में भी मिलते हैं।
     वेदों के यह प्रमाण सिद्ध करते हैं कि वेदों में विधवा विवाह को महापाप नहीं मानते थे अपितु पुनर्विवाह की अनुमति थी। इस प्रकार विधवा को उसके पूर्ण अधिकार के साथ जीवन व्यतीत करने की अनुमति थी। उन्हें घर से अलग रहकर यातनाएँ सहने के लिए मजबूर नहीं किया जाता था।
       आज इक्कीसवींम सदी के प्रगतिशील युग में इस प्रकार की रूढ़ियों को तोड़कर असहनीय यातनाओं को झेलने को लाचार इन विधवाओं के पुनर्वास व उनको यथोचित सम्मान  देने की महती आवश्यकता है।

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