रंगमंच-सी ये दुनिया बस खेल खिलाती है
हम सबको यूँ मोहरा बना नाच नचवाती है
डोरी थामे बैठा वह तो मंद-मंद मुस्काता है
पल-पल कर बस सब चैन चुराता जाता है
चाहे-अनचाहे किरदारों में फंसाता जाता है
निशि-दिन मनमाना अभिनय ये करवाता है
मनाही की गुंजाइश कभी नहीं ये बचाता है
जैसा चाहे जो भी चाहे खेल हमें खिलाता है
वो ही जाने अपनी माया भेद नहीं बताता है
पार न पाएं गुणीजन ऐसी उसकी माया है
छल छल जाता छलिया छवि महकाता है
वेद पुराण एकमत हो यह गाथा सुनाता है
नतमस्तक हो हर जन ही शीश झुकाता है
मान-मनोव्वल करते-करते इसे रिझाता है।
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