बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

अवनि से गहरी

अवनी से गहरी माँ  की छाया
अंबर से ऊँचा पिता का साया
अंगुली थाम चलना सिखलाया
हर धूप-छाँव में मन सहलाया

अपने ऊपर आए जब ज्वाला
फिर उस आँच से सदा बचाया
कब हमने उसका मोल चुकाया
फिर-फिर निश्छल नेह लुटाया

ऐसा निस्वार्थ प्यार बस पाया
होकर बावरा यह मन हरषाया
इसमें है नहीं कछु और समाया
कभी इस दिल को न समझाया

आज वर्षों बीते समझ में आया
उनके जाये पीछे मोल है भाया
जान लेती यह मन था भरमाया
काश किसी ने होता इसे जताया

भूल होती न होता मन मदमाया
अब कैसे मैं पाऊँ उनकी छाया
मनवा पहले क्यों न मुझे चेताया
ढूंढती उनको हूँ ये जग न भाया

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