शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

देखती हूँ मुड़कर

देखती हूँ मुड़ कर जिन्दगी से बस हिसाब माँगती हूँ
कोई माकूल जवाब अब मिल जाए इसी आशा में हूँ
अतीत के पन्ने बारबार बेतहाशा बैठी यूँ पलटती हूँ
समझ नहीं पाती कि मैं क्या-क्या तलाशती रहती हूँ

शायद इस जन्म में अपनी मदद को यूँ हाथ बढ़ाती हूँ
अपने-पराये की समझ मैं अपने मानस में नहीं पाती हूँ
काश वो भी मुझे जाने जिसे मैं दिलोजान से चाहती हूँ
पल-पल इंतजार की सूनी घड़ियाँ बस यूँहीं  बढ़ाती हूँ

हो सकता है जिन्दगी का कोई ऐसा पल उसे यूँ छू जाए
मेरे अंतर्मन के अनकहे शब्द उसे ही यह अहसास कराए
उसके मानस को किसी विधि ही सही आशा बींध जाए
मेरे अंत:करण की अथाह गहराई बस वो भी समझ पाए

बिन माँगे मोती की तरह कुछ पल में मेरी झोली भर जाए
मेरा यह बालमन कभी आहत न हो ऐसी यह दुआएँ पाए
इस पगले-दीवाने को बस दुनिया की खुशियाँ यही भाए
गम के आँसुओं से मीलों दूर यह अपना ही बसेरा बसाए

स्नेह की बाती दिन-रैन अपने अंतस में बसाती हूँ जलाए
चाहती हूँ मैं बस अब हरपल मुझे कोई समझता ही जाए
अलग-थलग दुखी रह कर जीना मुझे न कभी भी सुहाए
झूम-झूम कर मीत को यह अनोखी मीठी रागिनी सुनाए

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