बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

आकाश पंछी सा

आकाश पंछी सा यह मन उड़ना चाहे
नील गगन में अपना नीड़ बनाना चाहे
बाधारहित निशदिन पंख फैलाना चाहे
विस्तृत प्रांगण में हो मुक्त चहकना चाहे

नहीं हो पाता अपने वश में कितना चाहे
कलरव पक्षियों का सुन वो हर्षाना चाहे
उच्च स्वर में सुरीली तान सुनाना चाहे
बिना रोकटोक सब सुख वह पाना चाहे

हाथ बढ़ाकर बादलों को ये छूना चाहे
उसमें भीग-भीग जीवन रस पाना चाहे
चातक बन अपनी प्यास बुझाना चाहे
दिन हो या रैना मस्ती का आलम चाहे

निश्छल आवरण छोड़ न जाना चाहे
दुनिया के झंझटों से दूर बसाना चाहे
छल-प्रपंचों में कभी न भटकाना चाहे
सदा सरल सच्चे मीत बस पाना चाहे

मन मयूर जी भर के नाच नचाना चाहे
मोती की चमक सा वो चहकाना चाहे
बीते दिन न अब से फिर लौटाना चाहे
चलो सभी से मिल ये मन जीना चाहे।

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