बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

तन्हाइयाँ

आज दोपहर में बैठे हुए उन लोगों के विषय में विचार आया जो दुनिया में बिल्कुल अकेले हैं या भरापूरा परिवार होते हुए भी अकेलेपन का दंश झेल रहे हैं अथवा सामाजिक परिस्थितियों के वशीभूत होकर निपट अकेले हैं।
         मैं कविता नहीं लिखती परंतु मन में आए इन विचारों को सूत्र में पिरोने से रोक नहीं पाई। इसलिए इस विषय पर लिखे मेरे कुछ उदगार यहाँ लिख रही हूँ। आशा है आप इन्हें पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देंगे।
तन्हाइयाँ
मेरे पीछे-पीछे दबे पाँव अचानक कोई
घर में घुसने की कोशिश में शायद अब
जोर से दरवाजे की साँकल खटका रहा है
समझ नहीं पाई कि कौन हो सकता है?
उफ अब तो उठकर जाना ही होगा मुझे
दरवाज़ा भी खोलना पड़ेगा न चाहते हुए
चलो चलकर देखते हैं कौन है वहाँ पर?
क्यों मुझे वह अधीरता से पुकार रहा है?
उसकी बैचेनी का आखिर कारण क्या है?
उठती हूँ, बाहर जाती हूँ उसे देखने के लिए
सोचती हूँ कौन मेहमान आया है यहाँ
यह क्या, द्वार खोलते ही एक अजनबी
मुझे एकटक निहारती हुई यह कौन है?
अपनी दोनों बाहें फैलाए सामने से आती
मेरी ओर खुले मन से बढ़ती यह कौन है?
मैंने द्वार पर खड़े-खड़े ही उससॆ पूछा
कौन हो तुम? मैं नहीं पहचानती तुम्हें
वह बोली बड़ी जोर से हँसकर मुझे
मैं तेरी सखी हूँ, भूल गई हो क्या मुझे
मैं तो हर पल ही तेरे साथ थी पगली
कुछ दिन तेरे घर की चहल-पहल देख
दूर चली गई थी घूमने-फिरने के लिए
पर अब तो मैं तेरे पास लौट आई हूँ
तुझे थामने, अपने प्यार से बचाने के लिए
मैंने फिर उससे तमतमा कर पूछ लिया
यह बता दो मुझे तुम आखिर हो कौन
वह मुझसे लिपट कर प्यार से बोली
मैं तेरी सखी हूँ तेरी तन्हाई हूँ बावली
तुझ से दूर रहकर मैं जी नहीं सकती
तभी तो तेरे पास आई हूँ अरी सखी
अब किसी साथी के न होने का गम
नहीं सतायेगा तुझे अकेलापन उम्रभर

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