बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

द्वन्द्व

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में द्वंद्व सहन करने पर बल दिया है। समझने वाली बात है कि यह द्वंद्व किस चिड़िया का नाम है। द्वंद्व का अर्थ है विरूद्ध स्वभाव वाली स्थितियों को सहन करना। हम इनका इस प्रकार विषलेषण कर सकते हैं- सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, मान-अपमान आदि।
          ये सभी स्थितियाँ हमारे जीवन में क्रम से आती हैं। दूसरे शब्दों में 'चक्रनेमि क्रमेण नीचैयुपरि गच्छति' अर्थात् जिस प्रकार पहिए के चलने पर उसमें में लगे हुए अरे(तिलियाँ) ऊपर और नीचे होती रहती हैं, उसी प्रकार हमारे जीवन में सुख और दुख की स्थिति होती है।
         स्पष्ट शब्दों में हमें समझाया गया है कि ये सारे द्वंद मानव जीवन में बारी-बारी से आते हैं। कभी हमें सुख मिलता है कभी दुख। कभी हम उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं तो कभी कठोर श्रम करने पर भी अवनति के गर्त में गिरते हैं। कभी जब हमारा यश चारों ओर फैलता है तब हम आसमान में उड़ने लगते हैं। उस समय हम हर किसी को कीट-पतंगों की भाँति समझते हैं। हम भूल जाते हैं कि इस प्रकार करने से हम अपयश के भागीदार बनेंगे।
        काम-धंधे में कभी हमें आशा से बढ़ कर लाभ मिलता है तो कभी सावधान होते हुए भी हानि उठानी पड़ती है। इसी तरह कभी हम जीत की खुशियाँ मनाते हैं तो कभी हार के कारण सबसे मुँह छुपाते हैं।
      निष्कर्षत: हम अपने जीवन में इसी प्रकार इन द्वंदों को सहन करते हैं। ये सभी स्थितियाँ हर मनुष्य के जीवन में उसके कर्मों के अनुसार अवश्यमेव आती हैं। इनका सामना करना हमारी मजबूरी है क्योंकि हमारे पास और कोई चारा नहीं है। इसलिए इनका सामना सम होकर अर्थात् एक समान रह कर करना चाहिए।

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