सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

आंसू

            आंसू

अपने इन आंसुओं का क्या करूँ
कभी किसी पल हैं जो आ जाते
टपक पड़ते हैं मेरे गालों पर फिर
घर में अनचाहे मेहमान जो बनते

कितना समझाया था इनको मैंने
मत आओ यूँही पल-पल सताने
पर आते हैं लेकर नित नये तराने
नहीं मानते मेरा कहना ये दिवाने

इन्हें तो बहाना चाहिए आने का
कभी लाचार पर होते जुल्मों का
लुटती हुई किसी की अस्मत का
फिर किसी गरीब की बेबसी का

कभी घर-परिवार की टूटन का
पलायन करती नव पीढ़ियों का
कभी समाज की धुरी कहलाती
बिखरी हुई इन परिपाटियों का

दुनिया के सब ये जाने-पहचाने
सारे हैं ये इनके तार्किक फसाने
अनचाहे मुझको लगते हैं मनाने
कैसे बचूँ हैं ये सब दर्द के पैमाने

काश न आते कभी मेरे सिरहाने
आते तो केवल बस मुझे जिलाने
मैं मुक्त हो जाती, न आते फरमाने
जी ही लेती जहाँ में किसी बहाने।

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